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असम में मदरसों को स्कूलों में बदल रही है सरकार; अल्पसंख्यकों की जायदाद पर कब्जा!

याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए कहा है कि सरकारी मदरसों में निजी संपत्ति भी लगी है, ऐसे में उनको स्कूलों में बदलने का फैसले अल्पसंख्यक संस्थानों पर कब्जे जैसा है, जो संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन है. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को नोटिस जारी किया है. 

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अलामती तस्वीर
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Hussain Tabish|Updated: Nov 02, 2022, 06:20 AM IST

नई दिल्लीः सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को गुवाहाटी हाई कोर्ट के एक फैसले को चुनौती देने वाली अपील पर सरकार को नोटिस जारी किया है. दरअसल, साल 2020 में असम असेम्बली में एक कानून पास किया गया था, जिसके मुताबिक, रियासती हुकूमत के जरिए चलाए जा रहे मदरसों को सामान्य स्कूलों में बदला जाना था. सरकार के इस कानून को हाई कोर्ट ने बरकरार रखने का फैसला सुनाया था, इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में एक खास अनुमति याचिका दाखिल की गई थी. इस याचिका पर मंगलवार को सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने गुवाहाटी हाई कोर्ट के फैसले पर सरकार को नोटिस जारी किया है.

संविधान के अनुच्छेद 28(1) का दिया हवाला 
जस्टिस जय रस्तोगी और जस्टिस सी.टी. रविकुमार ने असम सरकार और अन्य से जवाब मांगा है. अदील अहमद की याचिका में कहा गया है कि हाई कोर्ट का फैसला सही नहीं है. मदरसों को भारत के संविधान के अनुच्छेद 28(1) से हिफाजत हासिल है. मदरसे किसी कानून का उल्लंघन नहीं करते हैं. यहां बच्चों को मजहबी तालीम दी जाती है. संविधान में इस बात का भी प्रावधान किया गया है कि सरकार शिक्षण संस्थानों को फंड देते वक्त धार्मिक आधार पर उनसे भेदभाव नहीं करेगा. इसलिए धार्मिक शिक्षा देने की इजाजत दी जाए. अपील उस फैसले को चुनौती देती है, जिसने असम में मौजूदा प्रांतीय मदरसों को नियमित सरकारी स्कूलों में बदल दिया था.

अल्पसंख्यकों की जायदाद हड़प रहा है नया कानून 
याचिकाकर्ताओ का प्रतिनिधित्व करने वाले सीनियर वकील संजय हेगड़े ने बेंच के सामने दलील दी है कि हाई कोर्ट का फैसला गलत था क्योंकि उसने राष्ट्रीयकरण के साथ प्रांतीयकरण की बराबरी की थी. याचिका में यह भी कहा गया है कि साल 1995 का कानून मदरसों में कार्यरत शिक्षण और गैर-शिक्षण कर्मचारियों को वेतन का भुगतान करने के मामले में कोई भेदभाव नहीं करता है.  धार्मिक संस्थानों के प्रशासन, प्रबंधन और नियंत्रण का अधिकार कानून सम्मत था. हालांकि, साल 2020 का कानून अल्पसंख्यकों की जायदाद हड़प रहा है, और धार्मिक शिक्षा प्रदान करने के अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकार को प्रभावित करता है.

सरकारी मदरसों में निजी लोगों की भी है संपत्ति  
याचिका में कहा गया है- मदरसों से संबंधित जमीन और इमारतों की देखभाल याचिकाकर्ता द्वारा की जाती है और बिजली और फर्नीचर पर खर्च याचिकाकर्ता मदरसों द्वारा खुद वहन किया जाता है. 2020 का निरसन कानून मदरसा शिक्षा की वैधानिक मान्यता के साथ युग्मित संपत्ति को छीन लेता है, और राज्यपाल द्वारा जारी 12.02.2021 के आदेश ने 1954 में बनाए गए ’असम राज्य मदरसा बोर्ड’ को भंग कर दिया है. याचिका में आगे दलील दी गई है कि यह कानून और कार्यकारी शक्तियों दोनों के मनमाने ढंग से प्रयोग के बराबर है और याचिकाकर्ता मदरसों को मजहबी तालीम देने वाले मदरसों के रूप में जारी रखने की क्षमता से महरूम करना है.

मदरसों को बंद करना चाहती है सरकार 
याचिका में कहा गया है कि बिना उचित मुआवजे के भुगतान के बिना याचिकाकर्ता मदरसों के मालिकाना अधिकारों में इस तरह का अतिक्रमण भारत के संविधान के अनुच्छेद 30(1ए) की साफ-साफ सिलाफवर्जी है. सुप्रीम कोर्ट में याचिका, मोहम्मद इमाद उद्दीन बरभुइया और असम के 12 अन्य निवासियों द्वारा दायर की गई है, जिसमें अंतरिम राहत के रूप में हाई कोर्ट के संचालन पर रोक लगाने की मांग की गई है. इस साल फरवरी में पास हाई कोर्ट के फैसले का विरोध करने वाली याचिका में कहा गया है, हाई कोर्ट के फैसले को लागू करने में मदरसों को बंद कर दिया जाएगा. साथ ही, इस शैक्षणिक सत्र में पुराने पाठ्यक्रमों के लिए छात्रों को दाखिला देने से रोक दिया जाएगा.

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