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Muharram 2021: आज भी इंसानियत की सबसे बड़ी दर्सगाह है 'कर्बला'

10 मोहर्रम 61 हिजरी में इमामे हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने अंसार, अक़रबा, भांजे, भतीजे और बेटों की मक़तल में बिखरी लाशों के बीच खड़े होकर जो पैग़ाम दिया उसने तारीख़े इंसानियत को बदल कर रख दिया.

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Muharram 2021: आज भी इंसानियत की सबसे बड़ी दर्सगाह है 'कर्बला'
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Abbas Mehdi Rizvi|Updated: Mar 19, 2022, 03:53 PM IST

सैय्यद अब्बास मेहदी रिज़वी: 10 मोहर्रम 61 हिजरी में इमामे हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने अंसार, अक़रबा, भांजे, भतीजे और बेटों की मक़तल में बिखरी लाशों के बीच खड़े होकर जो पैग़ाम दिया उसने तारीख़े इंसानियत को बदल कर रख दिया. लोगों के दिलों में इस अज़ीम क़ुर्बानी ने वो जगह बनाई जिसकी मिसाल तारीख़ आलमों आदम में नहीं मिलती. यही एक ऐसा वाक़्या है जिससे आलम की तमाम चीज़ें मुतास्सिर हुयीं. आसमान मुतास्सिर हुआ, ज़मीन मुतास्सिर हुयी, सूरज, चांद, सितारे मुतास्सिर हुए. यहां तक की ख़ुद ख़दुा वंदे करीम मुतास्सिर हुआ. 

इसका असर शफ़क़ की सुर्ख़ी है जो वाक़ये कर्बला के बाद से उफ़क़े आसमानी पर ज़ाहिर होने लगी. जिसने भी किरदारे इमाम को पढ़ लिया, जान लिया या समझ लिया वो इमाम का आशिक़ हो गया और यज़ीद से इज़हारे नफ़रत करने लगा. कोई बाप अगर जवान बेटे की मौत बर्दाशत न कर सके तो वो कर्बला को देखे, कोई भाई अगर अपने बराबर के भाई की जुदाई को सह न सके तो वो कर्बला को देखे, कोई लाशों के बीच तन्हा खड़ा हो और अपना क़रीब न हो तो वो कर्बला को देखे, मां की तरह मुहब्बत करने वाली बहनों का साथ छूट रहा हो तो वो कर्बला को देखे, कोई अपने भाई के यतीम को आंखों के सामने दम तोड़ता देखे तो वो कर्बला को देखे. दुनिया में मिले तमाम ज़ख़्मों की ताब जब जब इंसान न ला सके तो वो कर्बला के शहीदों की क़ुर्बानियां को पढ़े बेक़रार दिल को क़रार ज़रुर मिलेगा.

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विसाले पैग़ंबरे आज़म के बाद हालात बिलकुल बदल गए थे
पैग़म्बरे इस्लाम के विसाल के बाद इस्लाम की तारीख़ में कई बड़े बदलाव और वाक़्यात पेश आए. जगें जमल और जंगे सिफ़्फ़ीन में इस्लाम के दो गिरोह आमने सामने थे. इमाम अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद इस्लामी दुनिया में हालात और नासाज़ हो गए. बिलआख़िर वो वक़्त भी आया जब यज़ीद तख़्त पर विराजमान हो गया. यज़ीद के तख्त पर क़ब्ज़ा करने के बाद जानशीने पैग़म्बर हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के क़त्ल का मंसूबा तैय्यार होने लगा क्योंकि वो जानता था कि जब तक नवासा-ए-रसूल ज़िदां हैं दीने मुहम्मदी से खिलवाड़ नहीं किया जा सकता. ऐसे हालात पैदा हुए कि इमामे हुसैन ने 28 रजब सन 60 हिजरी को मदीना छोड़ दिया. 

अपने नाना हज़रत मुहम्मद स.अ. के मज़ार पर आख़िरी सलाम करने के बाद इमाम मदीने की गलियों से रोते हुए रुख़स्त हुए. 6 महीने के तवील सफ़र के बाद 2 मोहर्रम सन 61 हिजरी को आप कर्बला पहुंच गए. कर्बला पहुंचने के बाद यज़ीद के लश्कर पर लश्कर आने लगे, सख़्तियों पर सख़्तियां होने लगीं, यहां तक कि 7 मोहर्रम को आप के काफ़िले पर पानी बंद कर दिया गया. 10 मोहर्रम आते-आते सुल्ह के सारे रास्ते बंद हो चुके थे. 10 मोहर्रम को नमाज़े फ़ज्र का वक़्त होते ही इमाम आली मक़ाम के बेटे हज़रत अली अकबर ने अज़ान दी. इमाम की इमामत में इस्लाम के जांनिसारों ने नमाज़े फ़ज्र अदा की और जंग शुरु हुयी. नमाज़े अस्र का वक़्त आते-आते इमाम के अंसार, अरक़बा और अपने शहीद हो गए और वक़्ते अस्र नवासा-ए-रसूल को यज़ीदी फ़ौज ने चारो तरफ़ से घेर कर क़त्ल कर दिया. नवासा-ए-रसूल को तीन दिन तक भूखा प्यासा रखकर जिस बेदर्दी से क़त्ल करके उनके जिस्म और सर की बेहुरमती की गयी अख़लाक़ी लिहाज़ से भी तारीख़ इस्लाम में अव्वलीन और बदतरीन मिसाल है.

नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का दर्स देती है कर्बला
इमाम हुसैन अलैहिस्साम का ये इसान और कुर्बानी तारीख़े इस्लाम का एक ऐसा दरख़्शां बाब है जो रहरवाने मंज़िले शौक़ व मुहब्बत के लिए एक आला तरीन नमूना है. इजतेमाई क़ुर्बानी अल्लाह की राह में पेश करके हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने रहती दुनिया तक हर पाकीज़ा फ़िक्र और तहरीक को कर्बला से वाबस्ता कर दिया और ये पैग़ाम दिया कि जब भी जहां भी इंतेशार, ज़ुल्म, ज़्यादती, इंतेहापसंदी, शिद्दतपसंदी, क़त्लो ग़ारतगरी और दहशतगर्दी सर उठाए तो तुम ख़ामोश मत बैठना. तुम ये मत सोचना कि तुम इन बातिल ताक़तों के सामने कमज़ोर हो, तादाद में कम हो और मुक़ाबला नहीं कर सकते. झूठ और नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ तुम क़याम करना. तुम और तुम्हारी हक़परस्ती बातिल और ज़ालिम ताक़तों को शिकस्त देने में कामयाब हो जाएगी.

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