केंद्र सरकार ने 'एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की संभावना तलाशने के लिए पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की सदारत में एक पैनल का गठन किया है, जो देश में इसकी संभावना तलाश करेगा. अगले साल होने वाले आम चुनाव के पहले केंद्र सरकार का इस दिशा में उठाया गया ये कदम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राजनीतिक विरोधियों के लिए एक करारा झटका है. सरकार का यह एक क्रांतिकारी कदम हो सकता है, लेकिन इससे देश में संसदीय राजनीति और संघवाद को नुकसान हो सकता है. ऐसी संभावना है कि अब देश अमेरिका की तरह राष्ट्रपति शासन प्रणाली की तरफ आगे बढ़ रहा है.
केंद्र सरकार ऐसा कबतक करेगी, सवाल भविष्य के गर्भ में छिपा है, लेकिन भाजपा में “एक राष्ट्र, एक चुनाव" का विचार कोई नया विचार नहीं है. यह विचार भाजपा के राजनीतिक दर्शन से पूरी तरह मेल खाता है. अतीत में भी लालकृष्ण आडवाणी जैसे भाजपा के दिग्गजों नेताओं द्वारा सरकार के राष्ट्रपति स्वरूप का समर्थन किया जा चुका है.
दरअसल, अभी से पांच साल पहले 2018 में तत्कालीन राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने संसद में कहा था, " देश में बार-बार चुनाव न सिर्फ संसाधनों पर भारी बोझ डालते हैं, बल्कि आदर्श आचार संहिता लागू होने के कारण विकास प्रक्रिया को भी बाधित करते हैं.’’ अब 5 साल बाद मोदी ने लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने के विचार को मजबूती के साथ आगे बढ़ाने और उसपर लोक विमर्श छेड़ने का काम किया है. इसलिए सरकार ने इसपर एक अलग से पैनल गठित करने का फैसला किया है.
एक देश एक चुनाव को लेकर सबसे पहले 1998-99 में वामपंथियों और कांग्रेस द्वारा समर्थित क्षेत्रीय और जाति-आधारित पार्टियों के एक समूह 'संयुक्त मोर्चा’ के तहत तीन साल की राजनीतिक अस्थिरता के बाद वाजपेयी सरकार द्वारा सरकार की बागडोर संभालने के बाद इन विचारों को लोकप्रियता मिली थी.
केआर मलकानी जैसे भाजपा विचारक इस बात पर चिंता जताते रहे हैं कि भारतीय राजनीति में जाति-आधारित राजनीति और राजनीति के अपराधीकरण से बहुत नुकसान हुआ है. चुनावों में हिंसा और बूथ कैप्चरिंग जैसी समस्याएं इसी का कारण है. भगवा थिंक टैंक का शुरू से ही ये मानना रहा है कि चुनावी राजनीति इन सभी बीमारियों और विकृतियों का कारण है. अगर देश में 'एक राष्ट्र, एक चुनाव’ लागू किया जाता है तो राष्ट्रपति शासन प्रणाली का नेतृत्व हो सकता है, और यह एक मजबूत और स्थिर केंद्रीय/संघीय सरकार सुनिश्चित करने की दिशा में एक मजबूत कदम हो सकता है.
भारत ने जिस ब्रिटिश संसदीय मॉडल का अनुसरण किया है वह एक जिम्मेदार कैबिनेट और संप्रभु संसद वाली प्रणाली की परिकल्पना करता है, लेकिन अमेरिका में राष्ट्रपति प्रणाली है. वहां एक “महासंघ" के लिए एक कार्यकारी केंद्र सरकार है और वह न्यायपालिका के साथ निकट समन्वय में कार्य करती है. कुछ मामलों में तो न्यायपालिका को भी बढ़त मिल जाती है. बेशक, अमेरिका में विशेषज्ञ कहेंगे कि शक्तियों के पृथक्करण सिद्धांत को सही जांच और संतुलन के साथ 'व्यवहार्य’ बना दिया गया है, लेकिन भारतीय संदर्भ में यह एक चुनौतीपूर्ण काम होगा.
अगर भारत में अमेरिकी मॉडल को अपनाया जाता है, तो इससे सिविल सेवा शासन मशीनरी पर राज्य सरकारें अपनी पकड़ खो देंगी. यह सुधार भी है और क्रांतिकारी रणनीति भी. ऐसा माना जाता है कि “बाबूशाही" और लालफीताशाही (जिसे पीएम मोदी दोहराते रहते हैं) को खत्म करने से योजना परियोजनाओं का त्वरित कार्यान्वयन भी सुनिश्चित हो सकता है.
हालाँकि, एक बड़ी चिंता यह है कि यह कम लोकतांत्रिक होगा और छोटी पार्टियाँ धीरे-धीरे अस्तित्वविहीन हो जाएगी.
ऐसी प्रणाली दो या तीन पार्टी प्रणाली को प्रोत्साहित करेगी और तकनीकी रूप से यह कांग्रेस पार्टी को नए सिरे से “पुनर्जीवित" करने की अनुमति देगी.
वाजपेयी युग के दौरान, आडवाणी जैसे लोगों ने एक राष्ट्र, एक चुनाव और यहां तक कि राष्ट्रपति शासन प्रणाली के साथ ऐसी स्थिति का सपना देखा था. लेकिन बीजेपी के पास संसद में संख्या बल नहीं था. लेकिन 2023 के अमृत काल में भगवा पार्टी के पास संसद में पर्याप्त संख्या बल है, और वह इस वक्त कई राज्यों में सत्ता में भी है.
प्रेसिडेंशियल फॉर्म एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए प्रोत्साहित करता है, जहां राष्ट्रपति एक राष्ट्रीय नायक होता है. यह बिल मोदी पर आसानी से फिट बैठता है. राज्यों में संभवतः मुख्यमंत्रियों की जगह राज्यपाल ले लेंगे और “राज्यपाल" भी प्रांतीय नायक होंगे.
इसमें मतदाता जाति और धर्म के आधार पर वोट नहीं दे पाएंगे.
नीरेंद्र देव
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और मोदी टू मोदीत्वः एन अनसेंसर्ड ट्रुथ’ किताब के लेखक हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी विचार हैं.
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