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Bihar News: इस गांव में मुस्लिम परिवार हैं कान्हा के दीवाने, हर साल करते हैं जन्माष्टमी का इंतजार

Muzaffarpur News: आम तौर पर माना जाता है कि जन्माष्टमी या कृष्णाष्टमी हिंदुओं का त्यौहार है और लोगों को हर साल बेसब्री से अपने कान्हा का यौम-ए- पैदाईश मनाने का इंतजार रहता है. लेकिन, बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के एक गांव में मुस्लिम परिवारों को साल भर जन्माष्टमी का इंतजार रहता है.

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प्रतीकात्मक तस्वीर
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Md Amjad Shoab|Updated: Sep 06, 2023, 05:38 PM IST

Muzaffarpur News: आम तौर पर माना जाता है कि जन्माष्टमी या कृष्णाष्टमी हिंदुओं का त्यौहार है और लोगों को हर साल बेसब्री से अपने कान्हा का यौम-ए- पैदाईश मनाने का इंतजार रहता है. लेकिन, बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के एक गांव में मुस्लिम परिवारों को साल भर जन्माष्टमी का इंतजार रहता है.

दरअसल, मुजफ्फरपुर के कुढ़नी प्रखंड के बड़ा सुमेरा मुर्गिया चक गांव में 25 से 30 मुस्लिम परिवार रहते हैं, जो चार पीढ़ियों या उससे भी पहले से बांसुरी बनाने का काम करते हैं. इनका कहना है कि जन्माष्टमी त्यौहार पर उनकी बांसुरी की बिक्री बढ़ जाती है. मुस्लिम गांव के लोग बताते है कि नस्ल-दर-नस्ल वे लोग बांसुरी बनाने का काम कर रहे हैं और यही परिवार चलाने का एक जरिया है.

बांसुरी बनाने में माहिर मोहम्मद आलम अपने पिता से करीब 40 साल पहले बांसुरी बनाने की कला सीखी थी और तब से अब तक वे इस काम में लगे हुए हैं. उन्होंने कहा कि यहां की बनाई बांसुरी की कोई बराबरी नहीं कर सकता है. क्योंकि यहां की बांसुरी की खनक भरी धुन अलग होती है. यहां की बनी हुई बांसुरी बिहार के सभी जिलों के अलावा पड़ोसी राज्य झारखंड, उत्तर प्रदेश सहित पड़ोसी देश नेपाल और भूटान तक जाती है.

उन्होंने कहा, "जन्माष्टमी के समय भगवान कृष्ण के वाद्ययंत्र बांसुरी की बिक्री बढ़ जाती है. दशहरा के मेले में भी बांसुरी खूब बिकती है. यहां की बांसुरी नरकट की लकड़ी से बनाई जाती है. जिसकी खेती भी यहां के लोग करते हैं. गांव में बांसुरी बनाने वाले नूर मोहम्मद 12 से 15 साल की उम्र से बांसुरी बना रहे हैं. उन्होंने कहा कि नरकट को पहले छिल कर सुखाया जाता है, उसके बाद इसकी बांसुरी तैयार की जाती है".

कारीगरों का यह है दर्द
एक परिवार एक दिन में लगभग 100 से ज्यादा बांसुरी बना लेते हैं. यहां बनने वाली बांसुरी की कीमत 10 रुपए से लेकर 300 रुपए तक है. इस गांव में ऐसे लोग भी हैं जो बांसुरी भी बनाते हैं और गांव-गांव घूमकर उसे फरोख्त भी करते हैं. एक बांसुरी को बनाने में लगभग 5-7 रूपये लागत आती है. हालांकि कुछ सालों से नरकट के पौधे में कमी आई देखी गई है. फिर भी यहां के लोग आज भी नरकट से बांसुरी का रवायती ( पारंपरिक ) तरीके से बनाते हैं. कारीगर बांसुरी बनाने के लिए दूसरे जिले से भी नरकट खरीदकर लाते हैं. लेकिन बांसुरी कारीगरों का दर्द है कि उनकी कला को बचाए रखने के लिए कोई मदद नहीं मिल रहा है. कारीगरों ने मांग की है कि सरकार की तरफ से उन्हें माली मदद की जाए, जिससे यह कला समाप्त होने से बच सके.

 सरकार से की ये मांग
बांसुरी बनाने वाले कारीगरों का मानना है कि सालों तक अपने दम पर इस कला को बचा कर रखा है. लेकिन अब इस कारोबार को बढ़ाने के लिए सरकार के मदद की दरकार है. कारीगरों को नरकट की लकड़ी की ही नहीं खरीद फरोख्त करने के लिए बाजार की भी जरूरत है. अलबत्ता, यहां के कारीगरों को इस जन्माष्टमी में ऐसे कान्हा की खोज है, बल्कि यहां के बांसुरी बनाने की कला का को बचा सके.

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