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Islamic Beliefs: नमाज पढ़ रहे हैं और मां बुलाए तो... पैरेंट्स के सम्मान को लेकर क्या कहता है इस्लाम?

Islamic Teachings: धर्म कोई भी हो लेकिन मां-बाप की सेवा को सबसे बड़ा पुण्य माना गया है. इस्लाम की बात करें तो इस्लाम में भी मां-बाप की सेवा करने का हुक्म दिया गया है. मां-बाप बच्चे को पैदा करते हैं. उसका पालन पोषण करके उसे एक पहचान देते हैं. 

Islamic Beliefs: नमाज पढ़ रहे हैं और मां बुलाए तो... पैरेंट्स के सम्मान को लेकर क्या कहता है इस्लाम?
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Zee News Desk|Updated: Feb 22, 2023, 03:11 PM IST

Respect the Parents in Islam: अल्लाह, सर्वशक्तिमान है.  जिसने पूरी दुनिया में इंसान को सबसे ज्यादा नेमत और ताकत दी है. ऐसे में आज बात इंसानियत के सबसे बड़े सबक की करें तो किसी शख्स के दुनिया में आने का जरिया उसके मां बाप होते हैं. इसलिए इस्लाम में अपने मां-बाप के साथ हमेशा अच्छा व्यवहार करने को कहा गया है. किसी भी इंसान के लिए उसके मां-बाप उसकी सबसे बड़ी दौलत और नायाब तोहफा होते हैं. ऐसे में कहा जाता है कि जिस तरह से इंसान अपने मां बाप की सेवा करेगा उसी तरह का बरताव उसके बच्चे उसके साथ करेंगे.

इस्लाम में मां बाप का दर्जा 

इस्लाम में मां बाप का दर्जा इतना ऊंचा है कि अगर अल्लाह को एक मानने और इबादत करने के बाद मां बाप की खिदमत करने को कहा गया है. इसकी वजह यह है कि जहां इन्सान का वजूद हकीकत में अल्लाह की तरफ से है तो वहीं जाहिरी वजूद मां बाप की वजह से है. इससे पता चलता है कि मां बाप की नाफरमानी करना यानी उनकी बात न मानना सबसे बड़ा गुनाह है. अल्लाह के रसूल कहते हैं कि 'अल्लाह के साथ शिर्क करना और मां बाप की नाफरमानी करना बहुत बड़ा गुनाह है.' (हदीस  सहीह बुखारी)

कुरान में जिक्र है कि 'तुम अल्लाह ताला की इबादत करो और उसके साथ किसी को शरीक न ठहराओ और अपने मां बाप के साथ अच्छा सलूक करो' (कुरान  अन्निसा  37)

इस्लाम में मां बाप की नाफरमानी के अलावा उनके साथ नाराजगी का इजहार और उन्हें झिड़कने से भी मना किया गया है. मां-बाप के साथ पूरे शिष्टाचार से धीमी जुबान और नरम लहजे में बातचीत करने को कहा गया है. 

इस्लाम की रोशनी

इस्लाम में मां के एहतराम और उनके अदब का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पैगंबर मोहम्मद ने कहा कि अगर वह नमाज अदा कर रहे होते और उन्हें उनकी मां आवाज देती तो वह नमाज छोड़ उसका जवाब देते.

पैगंबर मोहम्मद स0 ने फरमामया कि 'अगर मेरी मां जिंदा होती और मैं इशा की नमाज शुरू कर चुका होता उस दौरान वह मुझे अपने हुजरे से पुकारतीं: ऐ मोहम्मद! तो खुदा की कसम! मैं नमाज छोड़ कर उनके पास हाजिर होता और उसके कदमों से लिपट जाता. (किताब  शाबुल ईमान)

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