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Presidential Election: मुख्यमंत्री, सांसद, स्पीकर से राष्ट्रपति तक, ऐसा रहा नीलम संजीव रेड्डी का सफर

Presidential Election: भारत के इतिहास में अब तक 14 राष्ट्रपति हुए. लेकिन केवल नीलम संजीव रेड्डी ही इकलौते नेता थे, जो निर्विरोध राष्ट्रपति चुने गए. यानी उनके सामने कोई प्रतिद्वंदी ही नहीं था. जी न्यूज की खास सीरीज महामहिम में जानिए नीलम संजीव रेड्डी के किस्से और सियासी सफर की कहानी.

Presidential Election: मुख्यमंत्री, सांसद, स्पीकर से राष्ट्रपति तक, ऐसा रहा नीलम संजीव रेड्डी का सफर
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Rachit Kumar|Updated: Jul 04, 2022, 01:25 PM IST

Presidential Election: साल 1977 का भारत कुछ अलग सा था. पहली बार देश में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी थी. चुनावों में करारी हार के बाद इंदिरा गांधी और कांग्रेस पार्टी राजनीतिक हाशिए पर पहुंच गई थी. लेकिन रायसीना हिल्स पर शान से खड़ा राष्ट्रपति भवन भी अलग दौर से गुजर रहा था. राष्ट्रपति पद पर रहते हुए फखरुद्दीन अली अहमद गुजर चुके थे. उनकी जगह बी.डी जट्टी बतौर कार्यवाहक राष्ट्रपति कामकाज देख रहे थे. अब सवाल यही था कि आखिर देश का अगला महामहिम कौन बनेगा. इसके बाद राष्ट्रपति की कुर्सी आई उस शख्स के पास, जो राजनीति से संन्यास ले चुका था. भारत के इतिहास में वो इकलौते नेता रहे, जो निर्विरोध राष्ट्रपति चुने गए.

जी न्यूज की खास सीरीज महामहिम में आज हम बात करेंगे नीलम संजीव रेड्डी की, जो भारत के छठे राष्ट्रपति बने. रेड्डी का का जन्म 19 मई 1913 को  तत्कालीन मद्रास प्रेसिडेंसी के इल्लूर गांव में एक तेलुगू भाषी परिवार में हुआ था. ये जगह आज आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले में है. उन्होंने मद्रास के अडयार में थियोसोफिकल हाई स्कूल से पढ़ाई की और बाद में मद्रास कॉलेज के सरकारी आर्ट्स कॉलेज में दाखिला लिया.

साल 1929 में जब महात्मा गांधी ने अनंतपुर का दौरा किया तो वे अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और 1931 में कॉलेज भी छोड़ दिया. छात्र सत्याग्रह में भी उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. 1938 में रेड्डी आंध्र प्रदेश प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के सेक्रेटरी बने और 10 साल तक यह पद संभाला. भारत छोड़ो आंदोलन के वक्त उन्हें ब्रिटिश सरकार ने जेल में डाल दिया. 1940 और 1945 में उन्होंने ज्यादातर समय जेल में काटा.

ऐसे हुई सियासत में एंट्री

ये वो दौर था, जब भारत की आजादी की कवायद जोर पकड़ने लगी थी. अंग्रेजी हुकूमत भी लौटने का मन बना चुकी थी. साल 1946 में  रेड्डी कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में मद्रास विधान सभा के लिए चुने गए. वह कांग्रेस विधायक दल के सचिव बने.वह मद्रास से भारतीय संविधान सभा के सदस्य भी थे. जब देश आजाद हुआ, तो अप्रैल 1949 से अप्रैल 1951 तक वह मद्रास के निषेध, आवास और वन मंत्री थे. लेकिन 1951 में उन्हें मायूसी हाथ लगी. रेड्डी 1951 के मद्रास विधान सभा चुनाव  में कम्युनिस्ट नेता तारिमेला नागी रेड्डी से हार गए.

किस्मत पलटी और बने मुख्यमंत्री

1951 में एक करीबी चुनाव में उन्होंने एन जी रंगा को मात दी और आंध्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुने गए. 1953 में जब आंध्र राज्य का गठन हुआ, तो टी. प्रकाशम उसके मुख्यमंत्री बने और रेड्डी डिप्टी सीएम. बाद में  तेलंगाना को आंध्र में शामिल करने के बाद, रेड्डी इसके पहले मुख्यमंत्री बने. पहले कार्यकाल में वह 1956 से 1960 तक इस पद पर रहे. इसके बाद 1962 से 1964 तक. उनके कार्यकाल के दौरान ही नागार्जुन सागर और श्रीशैलम नदी घाटी परियोजनाओं की शुरुआत की गई थी.  

रेड्डी के कार्यकाल के दौरान सरकार ने ग्रामीण विकास, कृषि और संबंधित क्षेत्रों पर फोकस किया. औद्योगीकरण की ओर बदलाव सीमित रहा और बड़े पैमाने पर राज्य में बड़े सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में केंद्र सरकार ही निवेश कर रही थी. मुख्यमंत्री के तौर पर रेड्डी का पहला कार्यकाल तब खत्म हुआ, जब वो 1960 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए. जबकि 1964 में उन्होंने बस रूट राष्ट्रीयकरण मामले में सुप्रीम कोर्ट की ओर से आंध्र प्रदेश सरकार के खिलाफ की गई टिप्पणियों के बाद स्वेच्छा से इस्तीफा दे दिया.

तीन बार रहे राज्यसभा सांसद

रेड्डी तीन बार राज्यसभा सांसद भी रहे. जून 1964 में वह लाल बहादुर शास्त्री की सरकार में मंत्री बने. इसके अलावा इंदिरा गांधी कैबिनेट में भी उन्होंने ट्रांसपोर्ट, सिविल एविएशन, शिपिंग और टूरिज्म जैसे मंत्रालय संभाले. जब 1967 का चुनाव हुआ तो वह आंध्र प्रदेश के हिंदुपुर से लोकसभा के लिए चुने गए. उन्हें स्पीकर चुना गया. स्पीकर की स्वतंत्रता कायम रहे इसके लिए उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया. स्पीकर रहते हुए कई बार उनका सदन में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ टकराव भी हुआ.  

वो चुनाव, जिसमें मिली हार और छोड़ दी राजनीति

साल 1969 का राष्ट्रपति चुनाव भारतीय राजनीति में सबसे विवादास्पद माना जाता है. जाकिर हुसैन की जब मृत्यु हुई तो कांग्रेस सिंडिकेट धड़े ने रेड्डी को बतौर राष्ट्रपति उम्मीदवार खड़ा किया था. जबकि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसका विरोध किया. हालांकि सिंडिकेट के दबाव में उन्हें रेड्डी को पार्टी का आधिकारिक उम्मीदवार मानना पड़ा. लेकिन उन्होंने ऐसा राजनीतिक दांव चला, जिससे कांग्रेस का सिंडिकेट धड़ा चित हो गया और रेड्डी राष्ट्रपति बनते-बनते रह गए. 

इंदिरा गांधी ने निर्दलीय उतरे वीवी गिरी को समर्थन देने का फैसला किया और कांग्रेस के सांसदों-विधायकों से अंतरात्मा की आवाज सुनकर वोट देने को कहा. नतीजतन वीवी गिरी जीत तो गए लेकिन कांग्रेस पार्टी दो धड़ों में बंट गई. रेड्डी ने लोकसभा स्पीकर के पद से इस्तीफा देकर यह चुनाव लड़ा था. इसके बाद उन्होंने सियासी जीवन से संन्यास ले लिया और अनंतपुर वापस जाकर खेती-बाड़ी करने लगे.

 राजनीति में फिर की वापसी

1975 का दौर भारत को बदल रहा था. जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का आह्वान किया. उनकी आवाज सुनकर अपना वनवास छोड़ रेड्डी दोबारा राजनीति में आए. जनवरी 1977 में, उन्हें जनता पार्टी की समिति का सदस्य बनाया गया और मार्च में उन्होंने जनता पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर आंध्र प्रदेश के नंदयाल (लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र) से आम चुनाव लड़ा. वह आंध्र प्रदेश से चुने जाने वाले एकमात्र गैर-कांग्रेसी उम्मीदवार थे. ये वो चुनाव था, जब 30 साल में पहली बार भारत में कांग्रेस शासन खत्म हो गया और पांच पार्टियों ने मिलकर सरकार बनाई और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने. रेड्डी फिर लोकसभा स्पीकर चुने गए. लेकिन कुछ ही महीनों बाद राष्ट्रपति चुनाव लड़ने के लिए उन्होंने इस्तीफा दे दिया.

पहली बार कोई निर्विरोध चुना गया

फखरुद्दीन अली अहमद की अचानक मौत के बाद तत्कालीन उपराष्ट्रपति बीडी जट्टी ने कामकाज संभाल तो लिया. लेकिन 6 माह के भीतर दोबारा चुनाव कराना जरूरी था. मोरारजी देसाई भरतनाट्यम की मशहूर डांसर और एनिमल एक्टिविस्ट रुक्मिणी देवी अरुंडेल का नामांकन करना चाहते थे. लेकिन उन्होंने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया. इसके बाद नीलम संजीव रेड्डी को उम्मीदवार बनाया गया. इंदिरा गांधी ने भी पुरानी गलती नहीं दोहराई और नीलम संजीव रेड्डी के खिलाफ कोई उम्मीदवार नहीं उतारा. देश की अन्य पार्टियों ने भी रेड्डी का समर्थन किया.

1977 के राष्ट्रपति चुनाव की खासियत ये थी कि इसमें 37 उम्मीदवारों ने अपना नामांकन दाखिल किया था. लेकिन समीक्षा के दौरान चुनाव आधिकारी ने 36 प्रत्याशियों का नामांकन निरस्त कर दिया. ऐसे में कोई मुकाबले में रेड्डी के सामने था ही नहीं. ऐसे में वह सर्वसम्मति से राष्ट्रपति बन गए. ऐसा पहली बार हुआ था, जब कोई उम्मीदवार निर्विरोध राष्ट्रपति बना था. 25 जुलाई 1977 को रेड्डी ने राष्ट्रपति पद की शपथ ली. उन्होंने तीन प्रधानमंत्रियों, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह और इंदिरा गांधी के साथ काम किया.

 उनका कार्यकाल 1982 तक रहा. अपनी फेयरवेल स्पीच में रेड्डी ने देश के नागरिकों की जिंदगी जीवन में सुधार करने में सरकारों की विफलता की आलोचना की और सरकारी कुशासन को रोकने के लिए एक मजबूत विपक्ष बनाने का आह्वान किया. जब उनका राष्ट्रपति कार्यकाल खत्म हुआ तो कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े ने रेड्डी से बेंगलुरु में सेटल होने को कहा लेकिन उन्होंने अनंतपुर जाने का फैसला किया. 83 साल की उम्र में उनका निमोनिया के 1996 में निधन हो गया. 

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