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बी डी जत्ती: म्युनिसिपैलिटी सदस्य से शुरुआत करने वाले नेता, जो 164 दिन रहे महामहिम

Presidential Election: देश के दूसरे मुस्लिम राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद का पद पर रहते हुए निधन हो गया था. कार्यवाहक राष्ट्रपति की जिम्मेदारी संभालने को कहा गया तत्कालीन उपराष्ट्रपति बासप्पा दनप्पा जत्ती (बीडी जत्ती) से, जो 31 अगस्त 1974 को ही उपराष्ट्रपति बने थे. बतौर कार्यवाहक राष्ट्रपति उनका कार्यकाल सिर्फ 164 दिन का ही रहा.

बी डी जत्ती: म्युनिसिपैलिटी सदस्य से शुरुआत करने वाले नेता, जो 164 दिन रहे महामहिम
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Rachit Kumar|Updated: Jun 30, 2022, 11:45 AM IST

Who was BD Jatti: 21 मार्च 1977 को जब इमरजेंसी हटी तो देश में काफी गुस्सा था. ये वो दौर था, जब देश की सियासत में एक नया प्रयोग होने जा रहा था. 19 महीने के आपातकाल के बाद जैसे लोगों को दूसरी आजादी मिली थी. विपक्षी नेताओं को रिहा किया जाने लगा और हालात सामान्य होने लगे. इसी महीने लोकसभा चुनाव हुए, जिसमें इंदिरा गांधी और कांग्रेस को अपने करियर की सबसे करारी शिकस्त झेलनी पड़ी. जनता ने जैसे अपना पूरा गुस्सा इस चुनाव में उतार दिया था. देश में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी. 

ये तो हुआ देश का हाल. लेकिन उस वक्त राष्ट्रपति भवन भी अलग ही दौर से गुजर रहा था. देश के दूसरे मुस्लिम राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद का पद पर रहते हुए निधन हो गया था. कार्यवाहक राष्ट्रपति की जिम्मेदारी संभालने को कहा गया तत्कालीन उपराष्ट्रपति बासप्पा दनप्पा जत्ती (बीडी जत्ती) से, जो 31 अगस्त 1974 को ही उपराष्ट्रपति बने थे. बतौर कार्यवाहक राष्ट्रपति उनका कार्यकाल सिर्फ 164 दिन का ही रहा. बी डी जत्ती का कार्यकाल भले ही छोटा रहा हो लेकिन अपने 5 दशक के करियर में वे मुख्यमंत्री, उपराष्ट्रपति और फिर राष्ट्रपति बने. उन्होंने ही कैबिनेट की सिफारिश पर इमरजेंसी हटाई थी.    

कर्नाटक में बीता था बचपन

10 सितंबर 1912 को बॉम्बे प्रेसीडेंसी के सावलगी (अब कर्नाटक) में हुआ था. उनके माता-पिता दासप्पा जत्ती और संगमा थे. जत्ती ने बीजापुर गवर्नमेंट हाई स्कूल में पढ़ाई की और राजाराम कॉलेज से आर्ट्स में ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की और साइंस लॉ कॉलेज, कोल्हापुर से लॉ की डिग्री पाई. उन्होंने कुछ समय के लिए वकालत भी की.

1940 में रखा राजनीति में कदम

1940 वो साल था, जब बी डी जत्ती ने राजनीति के अखाड़े में अपना पहला कदम रखा. वह जामखंडी से निकाय सदस्य बन गए और कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ते हुए जामखंडी टाउन म्युनिसिपैलिटी के अध्यक्ष चुने गए. बाद में, वह जामखंडी राज्य विधानमंडल के सदस्य बने और उन्हें जामखंडी रियासत की सरकार में मंत्री नियुक्त किया गया. आखिर में वह 1948 में जामखंडी राज्य के 'दीवान' (मुख्यमंत्री) बने.

फिर लौटे वकालत की दुनिया में

बतौर दीवान उनके  महाराजा, शंकर राव पटवर्धन के साथ करीबी संबंध रहे और बाद में रियासत को भारतीय संघ में मिलाने को भी राजी हो गए. 8 मार्च 1948 को जामखंडी बॉम्बे स्टेल का हिस्सा बन गया और वह वकालत की दुनिया में लौट आए और 20 महीने तक प्रैक्टिस करते रहे. 

किस्मत खींच लाई राजनीति के अखाड़े में

लेकिन किस्मत उन्हें दोबारा राजनीति के अखाड़े में खींच लाई. उन्हें विलय वाले इलाके से बंबई राज्य की विधानसभा के लिए नामांकित किया गया और ठीक एक हफ्ते बाद बंबई के मुख्यमंत्री बीजी खेर का संसदीय सचिव बनाया गया. इस पद पर जत्ती ने कुछ वर्षों तक काम किया. साल 1952 में जब आम चुनाव हुए तो उन्हें बंबई सरकार में स्वास्थ्य और श्रम मंत्री बनाया गया और राज्यों के पुनर्गठन तक उस पद पर रहे. उनकी बायोग्राफी I'm my own model काफी पॉपुलर है.

बने मैसूर राज्य के मुख्यमंत्री

पुनर्गठन के बादजत्ती मैसूर विधानसभा के सदस्य बन गए. वह भूमि सुधार कमेटी के चेयरमैन भी थे. इसी कमेटी ने 1961 में मैसूर लैंड रिफॉर्म्स एक्ट के लिए रास्ता बनाया था. साल 1958 में जब एस. निजलिंगप्पा ने मैसूर के सीएम का पद छोड़ा तो जत्ती को पार्टी का नेता चुना गया. उन्हें कांग्रेस के वरिष्ठ नेता टीम सुब्रमण्या से टक्कर तो मिली लेकिन वह उन्हें मुख्यमंत्री बनने से नहीं रोक पाए. जत्ती 1962 तक पद पर रहे. तीसरे आम चुनावों में भी वह जामखंडी क्षेत्र से जीते और 2 जुलाई 1962 को एस. निजलिंगप्पा की मिनिस्ट्री में उन्हें वित्त मंत्री बनाया गया. 

इन राज्यों में संभाला LG-राज्यपाल का पद

साल 1968 से 1972 तक जत्ती पॉन्डिचेरी के उपराज्यपाल रहे. 1972 में उन्हें ओडिशा का गवर्नर बनाया गया. 1 मार्च, 1973 को नंदिनी सत्पथी की सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार ने विधानसभा में बहुमत खो दिया. हालांकि विपक्ष के नेता बीजू पटनायक ने सरकार बनाने का दावा पेश किया लेकिन जत्ती ने सत्पथी की सलाह पर विधानसभा सत्र को स्थगित करने का फैसला किया और 3 मार्च, 1973 को राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की.

फिर उतरे उपराष्ट्रपति चुनाव में

मार्च 1974 तक ओडिशा में राष्ट्रपति शासन रहा. अगस्त 1974 में उन्होंने गवर्नर के पद से इस्तीफा दे दिया और इसी साल उपराष्ट्रपति का चुनाव लड़ने का फैसला किया. चुनाव में उन्हें जीत मिली और 31 अगस्त 1974 को उन्होंने देश के उपराष्ट्रपति पद की शपथ ली. फखरुद्दीन अली अहमद के निधन के बाद वह कार्यकारी राष्ट्रपति बने. जब 1977 में इंदिरा गांधी को शिकस्त मिली तो जत्ती ने उन्हें केयरटेकर पीएम बने रहने को कहा. इसके बाद उन्होंने इमरजेंसी हटा दी और 25 मार्च 1977 को मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई. 

अप्रैल, 1977 में नई सरकार ने कांग्रेस शासित राज्यों में सरकारों को बर्खास्त करने और विधानसभाओं को भंग करने की सिफारिश की. जत्ती ने शुरुआत में कैबिनेट की इस सिफारिश पर हिचकिचाहट दिखाई, लेकिन बाद में वे इसके लिए राजी हो गए और नौ राज्यों में सरकारों को बर्खास्त कर दिया. बीडी जत्ती का कार्यकाल भले ही छोटा रहा हो लेकिन उनके लिए फैसलों के कारण उन्हें आज भी याद किया जाता है. उनका निधन साल 2002 में 7 जून को हुआ था.

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