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महामहिम: 1969 का वो विवादास्पद चुनाव, जिसमें वीवी गिरि बने राष्ट्रपति और कांग्रेस दो धड़ों में बंट गई

जी न्यूज की खास सीरीज महामहिम की चौथी किस्त में हम आपको बताएंगे कि कैसे 1969 का राष्ट्रपति चुनाव तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और कांग्रेस के पुराने धड़े के बीच नाक का सवाल बन गया. 

महामहिम: 1969 का वो विवादास्पद चुनाव, जिसमें वीवी गिरि बने राष्ट्रपति और कांग्रेस दो धड़ों में बंट गई
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Rachit Kumar|Updated: Jun 21, 2022, 03:03 AM IST

तारीख थी 3 मई 1969. पूरे देश में शोक की लहर थी. रायसीना हिल्स समेत कांग्रेस पार्टी में अंदरूनी माहौल भी उथल-पुथल भरा था. राष्ट्रपति डॉ जाकिर हुसैन दुनिया से रुखसत हो चुके थे. पहली बार पद पर रहते हुए किसी राष्ट्रपति का निधन हुआ था. 

डॉ जाकिर हुसैन के निधन के बाद ये तो तय था कि देश में राष्ट्रपति चुनाव फिर से होंगे. इसकी कवायद भी दो महीने बाद यानी 14 जुलाई 1969 को शुरू हो गई. चुनाव आयोग ने ऐलान कर दिया कि चुनावी नामांकन 24 जुलाई को होंगे और वोटिंग 16 अगस्त को. लेकिन ये राष्ट्रपति चुनाव वैसा नहीं था, जैसे पिछले चुनाव रहे थे. इसे सबसे विवादास्पद राष्ट्रपति चुनाव कहा जाए तो गलत नहीं होगा. 

जी न्यूज की खास सीरीज महामहिम की चौथी किस्त में हम आपको बताएंगे कि कैसे 1969 का राष्ट्रपति चुनाव तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और कांग्रेस के पुराने धड़े के बीच नाक का सवाल बन गया और कुर्सी मिल गई उस शख्स को जो निर्दलीय मैदान में उतरा था. इस चुनाव के बाद कांग्रेस पार्टी दो धड़ों में बंट गई थी.

दिल्ली से सड़क के रास्ते पूर्वी भारत की ओर चलेंगे तो करीब 1,674 किलोमीटर बाद आएगा ब्रह्मपुर, जो ओडिशा का हिस्सा है. लेकिन पहले यह मद्रास प्रेसिडेंसी में आता था. 10 अगस्त 1894 को तेलुगू भाषी नियोगी ब्राह्मण परिवार में जन्म हुआ वराहगिरी वेंकटगिरी का, जो भारत के चौथे महामहिम (1969-1974) बने.

उनके पिता वी. वी. जोगय्या पंतुलु एक कामयाब वकील और कांग्रेस नेता थे, जो वीवी गिरी के जन्म के समय ब्रह्मपुर में काम कर रहे थे. उनकी मां सुभद्रम्मा असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन के वक्त ब्रह्मपुर में आजादी की लड़ाई में शामिल थीं. सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान एक विरोध-प्रदर्शन के दौरान उन्हें गिरफ्तार भी किया गया था. 

गिरि की शुरुआती शिक्षा चेन्नई स्थित मद्रास यूनिवर्सिटी के खलीकोट कॉलेज से पूरी हुई. साल 1913 में वह लॉ करने आयरलैंड चले गए, जहां उन्होंने यूनिवर्सिटी कॉलेज डबलिन (UCD) और किंग्स इन कॉलेज से कानून की पढ़ाई की.  

गिरि उन 13 भारतीय छात्रों की पहली खेप में से एक थे, जिन्होंने 1914-15 में यूसीडी में अनिवार्य एक साल लंबे कोर्स में भाग लिया था. किंग्स इन में पढ़कर ही आयरिश बार में जगह मिल सकती थी. साल 1914-1917 के बीच करीब 50 भारतीय छात्र यूसीडी में पढ़े.

जब गांधी के अनुरोध को माना फिर बाद में हुआ पछतावा

ये वो दौर था जब दुनिया में प्रथम विश्व युद्ध छिड़ा हुआ था. तब डबलिन से गिरि लंदन गए और वहां उनकी मुलाकात महात्मा गांधी से हुई. गांधी चाहते थे कि गिरि रेड क्रॉस स्वयंसेवक के रूप में इंपीरियल वॉर के प्रयास में शामिल हों. गिरि ने उनकी बात मान तो ली लेकिन अपने फैसले पर उन्हें बाद में पछतावा हुआ. 

पढ़ाई के दौरान ही गिरि न सिर्फ आयरिश बल्कि भारतीय राजनीति में भी एक्टिव थे. साथी भारतीय छात्रों के साथ एक पैम्फलेट निकाला था, जिसमें द.अफ्रीका में भारतीयों के साथ हो रही अभद्रता का कच्चा चिट्ठा था. ये पैम्फलेट इंडियन पॉलिटिकल इंटेलिजेंस के हाथ लग गया और नतीजतन गिरि समेत भारतीय छात्रों पर निगरानी बढ़ा दी गई और कई पुलिस रेड्स हुईं. 1 जून, 1916 को उनसे आयरलैंड छोड़कर जाने को कह दिया गया

भारत लौटने के बाद वह मद्रास हाई कोर्ट में वकालत करने लगे और कांग्रेस पार्टी भी जॉइन कर ली. वे पार्टी के लखनऊ सत्र में गए और एनी बेसेंट के स्वराज आंदोलन में भाग भी लिया. साल 1920 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए उन्होंने अपना वकालत का कामयाब करियर भी छोड़ दिया. साल 1922 में वह शराब की बिक्री के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन कर रहे थे, जिसके बाद उन्हें पहली बार गिरफ्तार किया गया.

लेबर आंदोलन का आजीवन रहे हिस्सा 

अपने पूरे करियर में वीवी गिरि ट्रेड यूनियन मूवमेंट के साथ जुड़े रहे. ऑल इंडिया रेलवेमैन फेडरेशन के वो संस्थापक सदस्य थे. एक दशक से ज्यादा समय तक वो इस संस्था के महासचिव रहे. साल 2016 में उन्हें ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया. बंगाल नागपुर रेलवे असोसिएशन की स्थापना भी उन्होंने ही की थी और साल 1928 में बंगाल नागपुर रेलवे द्वारा छंटनी किए गए श्रमिकों के अधिकारों के खिलाफ हड़ताल की अगुवाई की. 

ये हड़ताल सफल रही और ब्रिटिश हुकूमत और रेलवे कंपनी के प्रबंधन को घुटने टेकने पड़े. उन्होंने श्रमिकों की मांगों को भी माना. इसे भारत में मजदूर आंदोलन में एक मील का पत्थर माना जाता है. साल 1929 में गिरि और नारायण मलहार जोशी ने मिलकर द इंडियन ट्रेड यूनियन फेडरेशन (ITUF) बनाई. बाद में 1939 में ITUF का AITUC में विलय हो गया और गिरि 1942 में दूसरी बार इसके अध्यक्ष बनाए गए. 

साल 1942 में जब अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ तो गिरि को फिर से ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार कर लिया. 1947 में जब देश आजाद हुआ तो 1951 तक वह सीलोन में भारत के पहले उच्चायुक्त बने. साल 1951 में जब आम चुनाव हुए तो वह मद्रास में पथपट्टनम सीट से पहली लोकसभा के लिए चुने गए. उन्हें 1952 में लेबर मिनिस्टर बनाया गया. बतौर मंत्री उनकी नीतियों ने इंडस्ट्री के कई विवादों का निपटारा कर दिया. हालांकि, ट्रेड यूनियनों, बैंक कर्मचारियों के वेतन को कम करने के सरकार के फैसले पर मतभेदों के कारण उन्हें अगस्त 1954 में सरकार से इस्तीफा देना पड़ा.

जब 1957 में आम चुनाव हुए तो गिरि पार्वतीपुरम क्षेत्र से चुनाव हार गए. इसके बाद इसी साल में उन्हें उत्तर प्रदेश का गवर्नर बनाया गया. बाद में वे केरल (1950-1965) और कर्नाटक (1965-1967) के राज्यपाल बने. 

साल 1967 में बने उपराष्ट्रपति

13 मई 1967 को गिरि भारत का तीसरे उपराष्ट्रपति चुने गए. वह इस पोस्ट पर करीब दो साल तक रहे. गिरि पहले ऐसे उपराष्ट्रपति थे, जो अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए थे. जब डॉ जाकिर हुसैन की मृत्यु हुई तो उन्हें उसी दिन एक्टिंग प्रेसिडेंट बना दिया गया.

लेकिन तब कांग्रेस पार्टी में अंदरूनी कलह मची हुई थी. कांग्रेस की संसदीय दल की बैठक बेंगलौर में हुई थी. इसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर जगजीवन राम का नाम प्रस्तावित किया. लेकिन तत्कालीन पार्टी प्रेसिडेंट निजलिंगपा रूढ़िवादी थे. उन्होंने और कामराज ने नीलम संजीव रेड्डी का नाम प्रस्तावित किया.

इंदिरा गांधी के उम्मीदवार का नामांकन नहीं हुआ. इसके बाद जहां विरोधी युद्धस्तर पर रणनीति बनाने में जुट गए और इंदिरा गांधी ने अपने सुधार कार्यक्रम जारी रखे. इसके बाद बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और तत्कालीन उपप्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से वित्त मंत्रालय का प्रभार ले लिया गया. 

इस बीच वीवी गिरी ने बतौर निर्दलीय उम्मीदवार राष्ट्रपति चुनाव लड़ने का मन बना लिया. बैंकों के राष्ट्रीयकरण के अध्यादेश पर उन्होंने अपने इस्तीफे के एक दिन पहले ही दस्तखत किए थे. इसके बाद एक अजीबोगरीब स्थिति पैदा हो गई. देश में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति दोनों पद खाली होने वाले थे. सवाल यह भी था कि वीवी गिरि राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देंगे या उपराष्ट्रपति पद या दोनों से. उन्होंने दोनों ही पदों से इस्तीफा दे दिया और देश में पहली बार भारत के तत्कालीन चीफ जस्टिस एम. हिदायतुल्लाह ने कार्यकारी राष्ट्रपति का पद संभाला.

चुनाव की तारीख नजदीक आने लगी. सियासी सरगर्मियां बढ़ने लगीं. इस बीच स्वतंत्र पार्टी, जनसंघ और अन्य विपक्षी दलों के संयुक्त उम्मीदवार चिंतामन द्वारकानाथ देशमुख थे, जो नेहरू कैबिनेट में वित्त मंत्री रह चुके थे.

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इंदिरा ने किया वीवी गिरि का समर्थन

इस चुनाव में तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी ने पार्टी परंपरा से इतर वीवी गिरि को समर्थन देने का फैसला किया. लेकिन इस फैसले को सार्वजनिक नहीं किया गया. लेकिन उन्होंने यह संदेश अपने समर्थकों तक पहुंचा दिया. 

इस बीच कांग्रेस के पुराने धड़े को इंदिरा गांधी की प्लानिंग के बारे में पता चल गया और निजलिंगपा ने उन पर नीलम संजीव रेड्डी का खुलकर समर्थन करने का दबाव डाला. लेकिन ऐसा करने से इंदिरा गांधी ने मना कर दिया.

राष्ट्रपति चुनाव से चार दिन पहले इंदिरा गांधी ने इस मामले में पहली बार बयान दिया. बिना किसी का नाम लिए उन्होंने पार्टी के विधायकों और सांसदों से अंतरात्मा की आवाज सुनकर वोट देने को कहा. हर कोई इस संदेश का मतलब समझ गया. इंदिरा गांधी की बात मानते हुए विधायकों और सांसदों ने गिरि का समर्थन किया और उन्हें एक प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल हुए. जहां नीलम संजीव रेड्डी को 4,05,427 वोट मिले वहीं वीवी गिरि को 4,20,077 वोट. जबकि देशमुख को 1,12,769 वोट हासिल हुए. वीवी गिरि जीत तो गए लेकिन कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष और इंदिरा गांधी के बीच खाई और गहरी हो गई. 

जब 1974 में उनका कार्यकाल खत्म हुआ तो इंदिरा गांधी ने दोबारा उनका नाम प्रस्तावित नहीं किया. साल 1975 में उन्हें भारत रत्न से नवाजा गया और 24 जून 1980 में उनका हार्ट अटैक से निधन हो गया. अगली सीरीज में आपको बताएंगे कि गिरि के बाद इंदिरा गांधी ने किसका नाम राष्ट्रपति पद के लिए आगे बढ़ाया.

 

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