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भगवान शिव की पूजा में भूलकर भी न करें शंख का प्रयोग, जानिए इसके पीछे की वजह

Shiva Puja Vidhi: सावन महीने में भगवान शिव के भक्तों में काफी उत्साह देखने को मिल रही है. लोग विधि विधान से भगावन शंकर की पूजा कर जलाभिषेक कर रहे हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि भगवान शिव की पूजा में शंख का प्रयोग वर्जित है. आइए जानते हैं इसके पौराणिक वजह के बारे में.  

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भगवान शिव की पूजा में भूलकर भी न करें शंख का प्रयोग, जानिए इसके पीछे की वजह
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Zee News Desk|Updated: Jul 23, 2022, 03:37 PM IST

Sawan Month Shiva Puja Vidhi: सावन का पावन महीना चल रहा है. चारों तरफ प्रसिद्ध शिवमंदिरों में भक्तों का तांता लगा हुआ है. हिंदू धर्म के लोग मंदिरों से लेकर घरों में विधि विधान से शिवजी का पूजन अर्चन कर रहे हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि शंकर जी के पूजा में शंक का प्रयोग वर्जित है. मान्यता है कि यदि आप शंख से भगवान शिव को दुध या जल अर्पित करते हैं तो वो नाराज हो जाएंगे और आपको आशीर्वाद के जगह इसका दुष्परिणाम भी देखने को मिल सकता है. आखिर क्यों भगवान शंकर की पूजा में शंख का प्रयोग नहीं करना चाहिए? आइए जानते हैं इसके पीछे की वजह

वैसे तो हिंदू धर्म में शंख को पूजा के स्थान पर रखना बहुत ही शुभ माना जाता है. शंख को भगवान की आरती में रखा जाता है और उसके जल को आरती के उपरान्त सभी पर छिड़का जाता है. शंख को सुख-शांति का प्रतीक भी माना जाता है. ऐसी मान्यता है कि शंख को रखने से घर की दरिद्रता दूर होती है. लेकिन भगवान शिव की पूजा में शंख का प्रयोग नहीं करना चाहिए, जिसका उल्लेख शिवपुराण में मिलता है. आइए जानते हैं इसके बारे में.

शिवपुराण की कथा के अनुसार शंखचूड नाम का एक महापराक्रमी दैत्य था. शंखचूड दैत्यराम दंभ का पुत्र था. दैत्यराज दंभ की कोई संतान नहीं थी. उसने संतान प्राप्ति के ल‍िए भगवान विष्णु की कठिन तपस्या की थी. दैत्यराज के कठोर तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु प्रकट हुए और उससे वर मांगने को कहा. तब दंभ ने तीनों लोकों के लिए अजेय महापराक्रमी पुत्र का वर मांगा. विष्णु जी तथास्तु कहकर अंतर्धान हो गए. इसके बाद दंभ के यहां एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम शंखचुड़ पड़ा.

शंखचुड ने पुष्कर में ब्रह्माजी को खुश करने के ल‍िए घोर तप क‍िया. तप से प्रसन्‍न होकर ब्रह्मदेव ने वर मांगने के लिए कहा. तब शंखचूड ने वर मांगा कि वो देवताओं के लिए अजेय हो जाए. ब्रह्माजी ने तथास्तु कहकर उसे श्रीकृष्णकवच दे दिया. इसके बाद ब्रम्हाजी ने शंखचूड के तपस्या से प्रसन्न होकर उसे धर्मध्वज की कन्या तुलसी से विवाह करने की आज्ञा देकर वे अंतर्धान हो गए. ब्रह्मा की आज्ञा से तुलसी और शंखचूड का विवाह संपन्न हुआ. 

ब्रम्हाजी के वरदान मिलने से शंखचूड ने अहम में आ गया और तीनों लोकों में अपना स्वामित्व स्थापित कर लिया. शंखचूड़ से त्रस्त होकर देवताओं ने त्रस्त होकर विष्णु जी के पास जाकर मदद मांगी, लेकिन भगवान विष्णु ने खुद दंभ पुत्र का वरदान दे रखा था. इसलिए विष्णुजी ने शंकर जी की आराधना की, जिसके बाद शिवजी ने देवताओं की रक्षा के लिए चल दिए. लेकिन श्रीकृष्ण कवच और तुलसी के पतिव्रत धर्म की वजह से शिवजी भी उसका वध करने में सफल नहीं हो पा रहे थे.

जिसके बाद विष्णु जी ने ब्रम्हाण रुप धारण कर दैत्यराज से उसका श्रीकृष्णकवच दान में ले लिया और शंखचूड़ का रूप धारण कर तुलसी के शील का हरण किया. इसके बाद भगवान शिव ने अपने त्रिशुल से शंखचूड़ का वध किया. ऐसी मान्यता है कि उसकी हड्डियों से शंख का जन्म हुआ और वो विष्णु जी का प्रिय भक्त था. यही कारण है कि भगवान विष्णु को शंख से जल चढ़ाना बहुत शुभ होता है, जबकि भगवान शंकर ने उसका वध किया था इसलिए शंकर जी की पूजा में शंख का प्रयोग करना वर्जित है.

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(disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारी विभिन्न लेखों और धार्मिक मान्यताओं पर आधारित है. zee media इसकी पुष्टि नहीं करता है.)

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