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संसद और विधानसभाओं में क्या SC/ST के लिए सीट आरक्षण जारी रखना ठीक? संविधान पीठ करेगी विचार

Constitution Bench: सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने यह तय करने पर फैसला लिया है कि क्या संसद या राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जाति/ जनजाति समुदाय के लिए सीटों के आरक्षण को अभी तक जारी रखने का फैसला संवैधानिक है?

संसद और विधानसभाओं में क्या SC/ST के लिए सीट आरक्षण जारी रखना ठीक? संविधान पीठ करेगी विचार
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Arvind Singh|Updated: Sep 20, 2023, 09:17 PM IST

Reservation For SC/ST: सरकार ने जहां संसद और विधानसभा में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए सदन में बिल पेश किया है, वहीं सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने यह तय करने पर फैसला लिया है कि क्या संसद या राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जाति/ जनजाति समुदाय के लिए सीटों के आरक्षण को अभी तक जारी रखने का फैसला संवैधानिक है? कोर्ट ये तय करेगा कि क्या संविधान संसोधन के जरिए संविधान में इस आरक्षण की तय समयसीमा 10 साल से आगे बढ़कर अभी तक जारी रखना वैध है. चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ 21 नवंबर से इस पर सुनवाई शुरू करेगी.

10 साल की समयसीमा को बार बार आगे बढ़ाया गया
दरअसल, संविधान सभा ने 1950 को संविधान लागू होने के बाद सिर्फ 10 साल के लिए एससी/ एसटी समुदाय के लिए सदन में सीट आरक्षण की व्यवस्था की थी. हालांकि संविधान के अर्टिकल 334 में  समय समय पर संसोधन करके एससी/ एसटी और एंग्लो इंडियन के लिए आरक्षण की समय सीमा को बार बार आगे 10 साल के लिए  बढ़ा दिया गया. संविधान का आर्टिकल 334 अनुसूचित जाति / जनजाति के  लिए आरक्षण के लिए विशेष प्रावधान की समयसीमा से जुड़ा है.

104 वें संविधान संसोधन में क्या हुआ था
कोर्ट अब 104 वें संविधान संसोधन की वैधता का परीक्षण करेगा. जनवरी 2020 से लागू हुए इस 104वें संविधान संशोधन अधिनियम के जरिए जहां एंग्लो इंडियन समुदाय के लिए आरक्षण को खत्म किया गया, वहीं लोकसभा या विधानसभा में एससी/एसटी समुदाय के लिए सीट आआरक्षण को 2030 तक बढ़ा दिया गया. इसका एक मतलब यह भी हुआ संसद और विधानसभाओं में आरक्षण की समयसीमा 1950 के बाद मूलतः 10 साल होने के बजाए 80 साल तक बढ़ा दी गई.

आज कोर्ट में रखी गईं दलीलें
सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं की ओर से सीनियर एडवोकेट सी आर्यमा सुंदरम ने कह इस तरह के संविधान संसोधनों के जरिए सदन में एससी/ एसटी समुदाय के लिए आरक्षण को जारी रखना संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन करता है. क्या सरकार के पास ऐसे कोई उपयुक्त आंकड़े हैं जिनके जरिए इन संसोधनों को सही साबित किया जा सके. अगर ऐसा नहीं है तो फिर संविधान में किये गए ये संसोधन मनमाने ही कहे जाएंगे.

सुंदरम की तरफ से कहा गया कि आरक्षण की समयसीमा को संविधान संसोधनों के जरिए बार-बार बढ़ाना संविधान के अर्टिकल 14 के तहत समानता के अधिकार का हनन है. समानता के अधिकार का एक मतलब सरकार के अंदर समान प्रतिनिधित्व से भी है. लेकिन इस आरक्षण के बने रहने के चलते आरक्षित समुदाय के अलावा बाकी समुदाय से जुड़े लोग इन सीटों पर पर चुनाव लड़ने के अधिकार से वंचित रह जाते है. यही नहीं इसके चलते मतदाताओं का स्वतंत्र रूप से अपने उम्मीदवार के चयन करने का अधिकार भी प्रभावित होता है. हालांकि सरकार की ओर सॉलीसीटर जनरल और अटॉनी जनरल ने कहा कि 104 वां संसोधन के जरिये आरक्षण की समयसीमा को आगे बढ़ाने का फैसला वैध था.

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