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Explainer: नायब सिंह सैनी को देना होगा जवाब, 'ऑफिस ऑफ प्रॉफिट' में सोनिया गांधी तक को देना पड़ा था इस्तीफा

Nayab Singh Saini News: हरियाणा के नए सीएम नायब सिंह सैनी मुश्किल में पड़ गए हैं. बतौर सांसद इस्तीफा दिए बिना ही सीएम पद की शपथ लेने पर उनके खिलाफ 'लाभ के पद' (Office of Profit) का मामला बन सकता है.

Explainer: नायब सिंह सैनी को देना होगा जवाब, 'ऑफिस ऑफ प्रॉफिट' में सोनिया गांधी तक को देना पड़ा था इस्तीफा
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Deepak Verma|Updated: Mar 19, 2024, 04:28 PM IST

Office Of Profit Kya Hai: हरियाणा के मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी की कुर्सी खतरे में पड़ती दिख रही है. सैनी की नियुक्ति को चुनौती दी गई है. वकील जगमोहन सिंह भट्टी ने पंजाब & हरियाणा हाई कोर्ट में जनहित याचिका (PIL) डाली है. भट्टी ने आरोप लगाया कि सैनी ने जब सीएम पद की शपथ ली, तब वह कुरुक्षेत्र लोकसभा सीट से सांसद भी थे. इस तरह वह 'लाभ के पद' पर थे. भट्टी ने कहा कि 'नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाकर सदन में सदस्यों की संख्या 90 से अधिक कर दी गई है, जो संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप नहीं है.' उन्होंने कोर्ट में कहा कि सैनी की सीएम पद पर नियुक्ति कई आधारों पर 'अवैध' है. भट्टी की याचिका पर HC ने केंद्र, हरियाणा सरकार, निर्वाचन आयोग और हरियाणा विधानसभा अध्यक्ष को नोटिस जारी किया है. अगर अदालत ने यह पाया कि सैनी 'ऑफिस ऑफ प्रॉफिट' यानी 'लाभ के पद' पर हैं तो उनकी संसद सदस्यता रद्द की जा सकती है. 'लाभ के पद' से जुड़ा सबसे चर्चित मामला कांग्रेस की दिग्गज नेता सोनिया गांधी से जुड़ा है. 2006 में उन्हें अयोग्यता से बचने के लिए लोकसभा से इस्तीफा देना पड़ गया था.

लाभ का पद : नायब सिंह सैनी के खिलाफ याचिका

सैनी ने पिछले हफ्ते हरियाणा के नए मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी. सोमवार को वकील जगमोहन सिंह भट्टी ने PIL के जरिए इसे चुनौती दी. पीआईएल में दावा किया गया है कि सैनी की नियुक्ति विभिन्न आधारों पर 'अवैध' है. एक अहम दलील 'लाभ के पद' की दी गई है. याचिकाकर्ता का कहना है कि मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेते समय सैनी कुरुक्षेत्र लोकसभा सीट से मौजूदा सांसद होने के नाते लाभ के पद पर थे. अदालत ने केंद्र, हरियाणा सरकार और चुनाव आयोग को नोटिस जारी कर उनकी प्रतिक्रिया मांगी है. मामले में अगली सुनवाई 30 अप्रैल को होगी.

Office of Profit : क्‍या है 'लाभ का पद'?

सांसद और विधायक, विधायिका का हिस्सा होते हैं. वे सरकार की उसके कामों के लिए जवाबदेही तय करते हैं. 'ऑफिस ऑफ प्रॉफिट' के पीछे का सिद्धांत यह है कि अगर सांसद-विधायक सरकार के मातहत किसी 'लाभ के पद' पर रहेंगे तो सरकारी प्रभावी में आ सकते हैं और अपने संवैधानिक दायित्वों के निर्वहन से पल्ला झाड़ सकते हैं. 'ऑफिस ऑफ प्रॉफिट' कानून का मकसद यह है कि चुने हुए जनप्रतिनिधि के कर्तव्यों और हितों में कोई टकराव नहीं होना चाहिए. केंद्र और राज्‍य सरकार में मंत्री पद को इससे छूट मिली हुई है.

कानून साफतौर पर नहीं बताता कि 'ऑफिस ऑफ प्रॉफिट' क्‍या है. समय-समय पर अदालती फैसलों से जरूर इसका पता चलता है. 'ऑफिस ऑफ प्रॉफिट' से तात्‍पर्य ऐसे पद से है जिस पर बैठने वाले को किसी तरह का वित्तीय लाभ होता हो. वह लाभ कितना है, इससे फर्क नहीं पड़ता. 1964 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कोई व्यक्ति लाभ के पद पर है या नहीं, यह नियुक्ति का परीक्षण है. कोर्ट यह तय करने के लिए कई फैक्‍टर्स पर विचार करती है, जैसे-

- क्या सरकार नियुक्ति कर सकती है है?

- क्या सरकार के पास नियुक्ति समाप्त करने की शक्ति है?

- क्या सरकार पारिश्रमिक निर्धारित करती है?

- पारिश्रमिक का स्रोत क्या है?

- पद के साथ मिलने वाली शक्तियां क्‍या हैं?

'ऑफिस ऑफ प्रॉफिट' पर संविधान में क्‍या लिखा है?

संविधान के अनुच्छेद 102 (1) में वे शर्तें बताई गई हैं जिनके आधार पर संसद के सदस्य को अयोग्य करार दिया जा सकता है. आर्टिकल 102 (1) (a) के अनुसार, 'कोई व्यक्ति संसद के किसी भी सदन का सदस्य चुने जाने और होने के लिए अयोग्य होगा यदि वह संसद द्वारा कानून द्वारा घोषित पद के अलावा जो उसके धारक को अयोग्य नहीं ठहराता है; भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन लाभ का कोई पद धारण करता है.

आसान भाषा में कहें तो ऐसा व्‍यक्ति संसद का सदस्‍य नहीं हो सकता, जिसके पास भारत सरकार या राज्‍य सरकार में लाभ का पद है. छूट सिर्फ उन्‍हीं पदों को है जिन्‍हें संसद ने घोषित कर रखा है. अनुच्छेद 191(1) में ऐसा ही प्रावधान राज्यों में विधायकों और विधान परिषद के सदस्यों के लिए किया गया है.


संविधान का आर्टिकल 102 (1)

इसी अनुच्छेद में यह भी लिखा है कि किसी व्यक्ति को केवल इस कारण से भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन लाभ का पद धारण करने वाला नहीं माना जाएगा कि वह या तो संघ का या ऐसे राज्य का मंत्री है. दूसरे शब्दों में, मंत्री पद 'लाभ का पद' नहीं माना जाता. हालांकि, मंत्रियों की अधिकतम संख्या संविधान में तय है.

संसद ने संसद (अयोग्यता निवारण) अधिनियम, 1959 भी बना रखा है. इसमें उन पदों का ब्‍योरा है जिन्‍हें 'लाभ के पद' के दायरे से बाहर किया गया है. इस लिस्‍ट को कई बार संशोधित किया गया है. 2006 में इसी एक्ट में संशोधन के बाद सोनिया गांधी दोबारा सांसद चुनी जा सकी थीं.

सोनिया गांधी और 'लाभ का पद' व‍िवाद

2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बनी. सरकार ने उन्हें राष्ट्रीय सलाहकार समिति (NAC) का चेयरपर्सन नियुक्त किया था. उस समय सोनिया लोकसभा की सदस्य थीं. यानी 'लाभ के पद' पर थीं. हालांकि, उस वक्त इस पर विवाद नहीं हुआ. मामला गरमाया 2006 में, जब चुनाव आयोग ने समाजवादी पार्टी की सांसद जया बच्चन को 'लाभ के पद' पर होने के चलते राज्यसभा के लिए अयोग्य घोषित किया. बच्चन तब उत्तर प्रदेश फिल्म डेवलपमेंट फेडरेशन की अध्यक्ष थी. कांग्रेस ने उस समय जया के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था तो जवाब में बात सोनिया के पद तक आ गई. चूंकि सोनिया 'लाभ के पद' पर थीं इसलिए उन्होंने मार्च 2006 में लोकसभा के साथ-साथ NAC से भी इस्तीफा दे दिया.

तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने 2006 में संसद (अयोग्यता निवारण) अधिनियम, 1959 में संशोधन किया. उसमें लिखा कि राष्ट्रीय सलाहकार समिति के चेयरपर्सन का पद 'लाभ का पद' नहीं है. इसके बाद सोनिया की NAC में वापसी हुई. मई 2006 में वह रायबरेली से फिर लोकसभा के लिए चुन ली गईं. 2013 में इस कानून में फिर से संशोधन किया गया ताकि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्षों को अयोग्यता से छूट दी जा सके.

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