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Explainer: यूपीए सरकार की इलेक्शन ट्रस्ट स्कीम, जिसे डी वाई चंद्रचूड़ की बेंच ने बेहतर बताया

Electoral Bond vs Electoral Trust: भाजपा सरकार की इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम रद्द हो गई है. चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने पिछली व्यवस्था को इससे बेहतर माना, जो कांग्रेस के समय थी. ऐसे में यह समझना जरूरी है कि पहले वाली फंडिंग की इलेक्टोरल ट्रस्ट व्यवस्था क्या थी. 

Explainer: यूपीए सरकार की इलेक्शन ट्रस्ट स्कीम, जिसे डी वाई चंद्रचूड़ की बेंच ने बेहतर बताया
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Anurag Mishra|Updated: Feb 16, 2024, 02:56 PM IST

Political Funding Electoral Fund: चुनावी साल में जब सियासी पार्टियां प्रचार-प्रसार की तैयारी कर रही हैं, सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड योजना को ही रद्द कर दिया है. इसी के जरिए राजनीतिक दलों को फंडिंग होती थी. केंद्र की भाजपा सरकार यह कहकर स्कीम लाई थी कि इससे कालेधन पर लगाम लगेगी. हालांकि चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि सिर्फ यही योजना चुनाव में कालेधन पर अंकुश लगाने का एकमात्र साधन नहीं है. दिलचस्प यह है कि चुनावी बॉन्ड स्कीम पर आए फैसले में इलेक्टोरल ट्रस्ट योजना का भी जिक्र हुआ, जिसे 2013 में UPA सरकार ने शुरू किया था. कोर्ट ने पहले वाली स्कीम को ज्यादा तार्किक और बेहतर माना. 2018 से पहले यूपीए के समय इलेक्टोरल ट्रस्ट स्कीम के जरिए ही पार्टियों को फंडिंग होती थी. 

चुनावी ट्रस्ट के जरिए फंडिंग में 20,000 रुपये से ज्यादा के योगदान पर दानकर्ता के खुलासे को सुप्रीम कोर्ट ने उचित माना. दरअसल, ट्रस्ट में 20,000 रुपये से ज्यादा चंदा देने पर दानदाता का नाम और पैन नंबर देना होता था. इससे कम पर खुलासा करने की जरूरत नहीं थी. 31 जनवरी 2013 को अधिसूचित इलेक्टोरल ट्रस्ट स्कीम के तहत कंपनियों को ट्रस्ट बनाने और उसके जरिए राजनीतिक दलों को योगदान के लिए फंड जमा करने की अनुमति दी गई थी. ऐसे में यह समझना जरूरी है कि यूपीए सरकार की वो इलेक्शन ट्रस्ट स्कीम क्या थी? 

कांग्रेस के समय कैसा था सिस्टम?

2018 से पहले तक चुनावी फंडिंग के लिए जो योजना थी, उसे इलेक्शन ट्रस्ट योजना (Electoral Trust Scheme) कहा जाता था. यह 2013 में शुरू हुई थी. इस योजना में योगदान करने वालों और लाभार्थियों की पहचान का खुलासा किया जाता था. इसमें एक सालाना योगदान रिपोर्ट चुनाव आयोग को दी जाती थी. यह भी कॉरपोरेट और व्यक्तियों के डोनेशन की एक व्यवस्था है. 

ट्रस्ट की पूरी प्रक्रिया समझिए

- इसके तहत कोई भी रजिस्टर्ड कंपनी इलेक्टोरल ट्रस्ट बना सकती है. 
- भारत का नागरिक या पंजीकृत कंपनी या व्यक्तियों का संघ इन इलेक्टोरल ट्रस्ट में योगदान कर सकता है. 
- इसकी शुरुआत 2013 में हुई और ट्रस्ट को हर तीन साल में नवीनीकरण कराने का नियम बना.
- एक वित्तीय वर्ष में ट्रस्ट को जो भी पैसा मिलता है, उसका 95 प्रतिशत पंजीकृत राजनीतिक दलों को देने का नियम है. 
- योगदान के समय योगदानकर्ताओं का पैन नंबर और पासपोर्ट नंबर देना होगा. 
- 2013 के बाद इलेक्टोरल ट्रस्ट की संख्या 3 से बढ़कर 17 तक पहुंच गई लेकिन इलेक्टोरल ट्रस्ट से पार्टियों को फंडिंग कम हो गई. इसकी वजह इलेक्टोरल बॉन्ड ही था. 

जेटली लाए थे चुनावी बॉन्ड

- जी हां, चुनावी बॉन्ड योजना की घोषणा तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2017-18 के अपने बजट भाषण में की थी. 
- उन्होंने इसे राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता लाने के प्रयासों के तहत पार्टियों को दिए जाने वाले नकद चंदे के विकल्प के रूप में पेश किया था. 
- उन्होंने एक व्यक्ति की ओर से नकद चंदे की सीमा 2000 रुपये तक सीमित कर दी थी. 
- विपक्षी दलों ने योजना में अस्पष्टता को लेकर हंगामा किया लेकिन सरकार ने दो जनवरी, 2018 को इसे अधिसूचित कर दिया. 
- चुनावी बॉन्ड के पहले बैच की बिक्री मार्च 2018 में हुई थी. 
- एसबीआई 1000 रुपये से एक करोड़ के चुनावी बॉन्ड जारी कर सकता था. इसमें दल चुनाव आयोग को कुल डोनेशन के बारे में तो सूचित करते थे लेकिन दानदाताओं का विवरण इसमें नहीं होता था. 
- इस व्यवस्था में राजनीतिक फंडिंग तेजी से बढ़ी. 2017-18 से 2022-23 तक बॉन्ड के जरिए भाजपा को 6,566.11 करोड़ रुपये, जबकि कांग्रेस को 1,123.3 करोड़ रुपये मिले. इसी दौरान तृणमूल कांग्रेस को 1,092.98 करोड़ मिले.

CJI का सवाल, चंदे की सीमा क्यों हटी?

चीफ जस्टिस ने अपने फैसले में कॉरपोरेट कंपनी पर इलेक्टरोल बांड के जरिए चंदा देने की निर्धारित सीमा को हटाने पर भी सवाल उठाया. दरअसल, पहले वाली व्यवस्था (यूपीए सरकार के समय) में कोई भी कंपनी पिछले 3 साल के अपने शुद्ध मुनाफे के वार्षिक औसत का 7.5% से ज्यादा चंदा राजनीतिक दलों को नहीं दे सकती थी. 1985 से 2013 तक यह सीमा 5 प्रतिशत थी. हालांकि इलेक्टोरल बॉन्ड में इस बाध्यता को खत्म कर दिया गया. कोर्ट ने कहा कि इससे उन आरोपों को बल मिलता है कि बड़ी कंपनियां शेल कंपनियों के जरिए पार्टियों को डोनेशन दे रही हैं. 

कंपनी घाटे में, पर फंडिंग देगी!

इससे पहले, चीफ जस्टिस ने सुनवाई के दौरान ही कहा था कि कंपनियों के चंदे को सीमित करने के पीछे की वजह ठीक थी. कंपनी होने के नाते आपका काम बिजनेस करना है, चंदा देना नहीं. इसके बावजूद आप चंदा देना चाहते हैं तो ये कम ही होना चाहिए, लेकिन अब 1% मुनाफा कमा कर रही कंपनी भी एक करोड़ चंदा दे सकती है. फैसले में सीजेआई ने कहा कि मौजूदा प्रणाली में घाटे में चल रही कंपनी भी पार्टियों को फंडिंग कर सकती है. (फोटो- lexica AI)

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