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Interview: 16 साल तक इस डर में जिया हूं, अबरॉड की नौकरी छोड़ फिल्मों में आया: प्रतीक गांधी

Scam 1992 Actor Pratik Gandhi Interview: 'स्कैम 1992' से एक्टर प्रतीक गांधी घर घर में फेमस हुए. अब जल्द ही वह कुणाल खेमू की 'मडगांव एक्सप्रेस' में भी नजर आने वाले हैं. इस बीच प्रतीक गांधी ने 'जी न्यूज' को दिए एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में अपनी जर्नी, पर्सनल लाइफ और फिल्म से जुड़े मजेदार किस्सों को शेयर किया. पढ़िए प्रतीक गांधी का इंटरव्यू.

प्रतीक गांधी इंटरव्यू
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Varsha|Updated: Mar 20, 2024, 07:11 PM IST

एक लड़का सूरत में जन्मा. जिसके पैरेंट्स टीचर थे. गुजरात में ही पढ़ाई लिखाई की. फिर महाराष्ट्र आ गया इंजीनियरिंग करने. पढ़ाई पूरी होने के बाद उसे अच्छी नौकरी भी मिल गई. अच्छा-खासा पैकेज भी था. मगर अंदर ही अंदर एक्टिंग का कीड़ा पल रहा था. ऐसे में नौकरी के साथ साथ पैशन को भी फॉलो करने लगा. बड़े बड़े प्ले में काम किया. फिर गुजराती सिनेमा से भी ऑफर आने लगे. मगर लोगों की नजरों में वह तब चमका जब हंसल मेहता की 'स्कैम 1992' आई. जी हां, ये लड़का कोई और नहीं बल्कि प्रतीक गांधी हैं. जिन्होंने अब तक कई बड़े प्रोजेक्ट्स में काम किया है. अब सब अच्छे से वाकिफ हैं कि वह कितने अच्छे होनहार कलाकार हैं. जल्द ही कुणाल खेमू की 'मडगांव एक्सप्रेस' में भी नजर आने वाले हैं. तो चलिए इस इंटरव्यू में उन्हीं की जुबानी पढ़िए उनकी जर्नी.

'मडगांव एक्सप्रेस' एक कॉमेडी फिल्म है. जहां तीन यार मिलकर गोवा जाते हैं. इसी ट्रिप को लेकर प्रतीक गांधी ने बताया, 'दोस्तों के साथ जब गोवा जाने का मौका मिले तो बहुत ही मजा आता है. पहला मौका है जब मैं दोस्तों के साथ गोवा गया हूं. स्कूल के दोस्तों के साथ रियल लाइफ में मैं कहीं घूमने नहीं जा पाया. कोशिश तो लाख की थी लेकिन पूरी न हो सकी. शुक्र है अब वॉट्सऐप का जमाना है तो मैं अपने स्कूल के दोस्तों से टच में हूं. हमारे बैच के दोस्तों का तो एक ग्रुप भी हैं जिसमें 18 दोस्त हैं. तो 'मडगांव एक्सप्रेस' की शूटिंग के वक्त मैंने काफी एन्जॉय किया. आखिरकार मेरा दोस्तों के साथ गोवा जाने का सपना भी पूरा हुआ.'

अविनाश तिवारी और दिव्येंदु के साथ काम करने का अनुभव
- हर कलाकार का अपना अलग प्रोसेस होता है. 'मडगांव एक्सप्रेस' में हम तीन लीड रोल में हैं, मैं, अविनाश तिवारी और दिव्येंदु. ये सप्राइजिंग हैं कि हम तीनों पहली बार सेट पर ही मिले. एक दूसरे को सेट पर ही जाना. पहले सिर्फ एक दूसरे की फिल्मों की वजह से जानते थे. मगर शूट के दौरान हमने बहुत एन्जॉय किया. आपस में जबरदस्त पटी. एक वक्त को तो लगने लगा कि हम तीनों सच में स्कूल दोस्त हैं. यही वजह है कि फिल्म में हमारी फ्रैंडशिप ऑर्गैनिक लगती है. आशा करता हूं कि फैंस को भी ये फिल्म और कहानी अच्छी लगे.

डायरेक्टर की कुर्सी पर कुणाल खेमू कैसे लगे?
- कुणाल खेमू का कॉमिक टाइमिंग बहुत ही कमाल का है. ह्यूमर का अलग-अलग स्टाइल होता है. सालों से हम सभी उन्हें बतौर एक्टर देखते आ रहे हैं. वह बचपन से अलग-अलग रूप में कैमरे के सामने रहे हैं. उन्होंने काफी काम किया है और यही एक्सपीरियंस उन्हें डायरेक्टर की कुर्सी तक ले आया है. मैंने जब पहली बार 'मडगांव एक्सप्रेस' का नेरेशन सुना तो मैं हैरान रह गया कि कुणाल खेमू पहली फिल्म बना रहे हैं. लगा ही नहीं कि उनका ये डायरेक्टोरियल डेब्यू है. वह एक एक सीन, कट, शूट, लोकेशन को लेकर बहुत क्लीयर थे. यही वजह है कि वह बतौर डायरेक्टर भी काफी दमदार रहे हैं. मुझे पर्सनली लगता था कि कुणाल खेमू की पहली फिल्म है तो वह नर्वस होंगे. मगर ऐसा नहीं था. वह तो सेट और फिल्म को लेकर काफी कंफर्टेबल होंगे. अगर डायरेक्टर इतना चिल होता है तो टीम भी वही चीज फॉलो करती है. 'मडगांव एक्सप्रेस' के साथ उन्होंने बहुत समय बताया था. ब्रेक टाइम पर वह खूब मस्ती मजाक भी किया करते थे. यही वजह है कि मुझे लगा ही नहीं कि ये उनकी बतौर डायरेक्टर फिल्म होगी.

प्रतीक गांधी, अविनाश तिवारी और दिव्येंदु की तिगड़ी किसने बनाई?
- ये सवाल तो मैं भी सबसे पूछ रहा हो. शायद कुणाल खेमू ही इस बारे में बता सकते हैं. संभव है कि हम तीनों को लोगों ने एक ही सरटेन रोल में देखा है. अब वह इसी परसेप्शन  को तोड़कर नया रूप दिखाना चाहते हो.कुणाल ने मुझे बताया था कि उन्होंने मेरे काम को देखा था. वह समझते थे कि मैं कॉमिक रोल निभा सकता हूं.

होली पर 'मडगांव एक्सप्रेस' रिलीज हो रही है, आपके लिए बॉक्स ऑफिस नंबर कितने मायने रखते हैं?
- बतौर एक्टर तो बता नहीं लेकिन एक फिल्म में बहुत सारे लोग होते हैं. बहुत कुछ इन्वेस्ट किया जाता है. मेरी समझ में ये आता है कि एक फिल्म बनाने से लेकर रिलीज करने तक बहुत सारी बातें होती हैं. ऐसा नहीं है कि एक एक्टर अच्छा काम करें तो फिल्म चल जाएगी या एक राइटर अच्छा लिख देगा तो फिल्म चल जाएगी. नहीं, सब मिलकर एक फिल्म को बेहतरीन बनाते हैं और वही फिल्म चलती भी है. लाजमी है नंबर गेम जरूरी है. जीत भी सबकी और हार भी सबकी होती है.

एक कलाकार और एक स्टार में क्या अंतर होता है?
- बहुत ही मुश्किल होता है एक कलाकार और एक स्टार को डिफरेंशिएट करना. हम तो सिर्फ काम करते हैं. ऐसा कोई प्लान करके काम नहीं करता कि मैं स्टार ही बनना चाहता हूं या कलाकार के तौर पर ही काम करूंगा. ये सब आपके काम को देखकर ऑडियंस तय करती है. अपनी बात करूं तो मैं एक लेबल से जुड़ना नहीं चाहता. मैं खूब काम करना चाहता हूं और आगे बढ़ना चाहता हूं.

एक आउटसाइडर की तुलना में रिजनल सिनेमा से आने वाले कलाकारों को क्या मुश्किलें फेस करनी पड़ती है?
- रिजनल सिनेमा से हिंदी सिनेमा में आने पर एक एक्टर को लहजे की दिक्कत आती है. आप जब क्षेत्रीय सिनेमा में काम करते हैं तो आप उस भाषा में रम जाते हैं. उसी में बोलती हैं, उसी तरह सोचते हैं. वहां के अपने फ्लेवर और रंग रूप होते हैं. मगर इसका दूसरा पहलू भी है कि आपको ये सोच तोड़नी पड़ेगी कि रिजनल एक्टर दूसरी इंडस्ट्री में काम नहीं कर सकता. सबसे पहले तो रिजनल एक्टर के तौर पर मत दीखिए. मैं बहुत कुछ कर सकता हूं. जैसे मैंने गुजराती सिनेमा में बहुत काम किया. लोगों को लगने लगा था कि ये तो गुजराती टच ये ही ला सकता है. मगर जब यूपी का किरदार बनेगा तो उन्हें लगता है कि शायद ये रोल को पकड़ नहीं पाएगा. कुछ हद तक ये सच होता है. मगर कुछ हद तक नहीं. मुझे लगता है कि लोगों को पहले परखना चाहिए. वहीं एक तमिल एक्टर को तब लाया जाता है जब साउथ से जुड़ा रोल होता है. कुल मिलाकर एक बार कलाकार को परखना चाहिए और दूसरा एक्टर को खुद को भी प्रूव करना होता है.

अच्छी खासी नौकरी छोड़कर थिएटर और गुजराती सिनेमा करते वक्त डर लग रहा था?
- नौकरी छोड़ने के बाद अफकॉर्स डर था. 16 साल तक मैं इस डर के साथ जीया हूं. फिर एक मौका ऐसा आया कि अब नहीं तो कभी नहीं. साल 2016 में मैंने तय किया कि अब दो चीजें नहीं करूंगा. एक ही करूंगा. कारण ये था कि दो नांव में सवार होने से कुछ नुकसान हो रहा था. मुझे नौकरी की लाइन में भी बहुत अच्छे ऑफर आ रहे थे. मुझे विदेश से जॉब मिल रही थी. उस दौरान मैंने एक फिल्म की थी 'रॉन्ग साइड राजू'. इस फिल्म को मैंने 20 दिन की छुट्टी लेकर काम पूरा किया. मैं जॉब की वजह से प्रमोशन में नहीं जा पा रहा था. हमारी फिल्म को नेशनल अवॉर्ड तक मिला था. फिर ऐसा वक्त आया कि मैंने तय कर लिया था अगर मैं फिल्में करना ही चाहता हूं तो एक चीज को चुनना होगा.

नौकरी या फिल्में, आज जो कुछ हैं किसे श्रेय देंगे?
साल 2016 तक मेरी शादी हो चुकी थी. साल 2014 में मेरी बेटी का भी जन्म हो चुका था. इस बीच मेरे पिता का कैंसर ट्रीटमेंट हुआ. मेरे वाइफ का ट्यूमर का ऑपरेशन हो चुका था. मेरे दिमाग में ये चीज थी कि इतना कुछ मेरी लाइफ में हुआ है मैं सैलरी की वजह से टिक पाया हूं. मैं तो मुंबई में जन्मा या पला बढ़ा हूं नहीं. सूरत से आया था. घर भी लेना था. 2016 में आखिरकार मैंने तय किया कि मैं नौकरी नहीं करूंगा और सिर्फ सिनेमा में कंटीन्यू करूंगा. नौकरी से  मैंने मुंबई में पहला घर भी खरीदा. इसका श्रेय भी मैं नौकरी को देता हूं. बहुत सारी स्क्रिप्ट को भी न कह सका. क्योंकि सैलरी थी तो मैंने अच्छा काम को चुना. मैंने नौकरी भी अपनी चॉइस से की कोई दबाव नहीं था. वहीं फिल्में करना मेरा पैशन था, जिसे मैं एन्जॉय करता हूं. करता रहूंगा.

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