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Who is Amarnath Jha: कौन थे हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिलाने वाले अंग्रेजी के प्रोफेसर 'अमरनाथ झा'?

Dr. Amarnath Jha BHU: अंग्रेजी के विद्वान होने के साथ-साथ वे फारसी, संस्कृत, उर्दू, बंगाली और हिंदी भाषाओं के अच्छे जानकार थे. उनकी शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में हुई थी.

Who is Amarnath Jha: कौन थे हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिलाने वाले अंग्रेजी के प्रोफेसर 'अमरनाथ झा'?
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chetan sharma|Updated: Sep 02, 2024, 02:28 PM IST

Dr. Amarnath Jha education: हिंदी को उसका अधिकार दिलाने का ताउम्र प्रयास करते रहे डॉ अमरनाथ झा. संस्कृत, उर्दू में महारत हासिल थी लेकिन विशेष लगाव हिंदी से था. राजभाषा आयोग के अहम सदस्य भी बनाए गए और इनकी सलाह को गंभीरता से लिया भी गया. खिचड़ी भाषा के धुर विरोधी थे.

शिक्षा जगत में बहुमूल्य योगदान देने वाले महान शिक्षाविद डॉ. अमरनाथ झा का जन्म बिहार के मधुबनी जिले में 25 फरवरी, 1897 को हुआ था. इलाहाबाद विश्वविद्यालय और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति रहने के साथ-साथ अमरनाथ झा ने अपने समय के सबसे योग्य अंग्रेजी के प्रोफेसर के रूप ख्याति अर्जित की.

अंग्रेजी के विद्वान होने के साथ-साथ वे फारसी, संस्कृत, उर्दू, बंगाली और हिंदी भाषाओं के अच्छे जानकार थे. उनकी शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में हुई थी. एमए की परीक्षा में वे 'इलाहाबाद विश्वविद्यालय' में टॉपर रहे थे. उनकी योग्यता देखकर एमए पास करने से पहले ही उन्हें 'प्रांतीय शिक्षा विभाग' में अध्यापक नियुक्त कर लिया गया था.

उन्होंने हिंदी को राजभाषा बनाने के लिए बहुमूल्य योगदान दिया था. हिंदी को राजभाषा बनाने के उनके सुझाव को स्वीकार किया था और फिर बाद में हिंदी को 'राजभाषा' का दर्जा दिया गया था.

लंबे समय तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के प्रमुख रहे, जहां उन्हें मात्र 32 साल की आयु में नियुक्त किया गया था. यहां वे प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष रहने के बाद साल 1938 में विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर बने और साल 1946 तक इस पद पर बने रहे. उनके कार्यकाल में विश्वविद्यालय ने बहुत उन्नति की और उसकी गणना देश के उच्च कोटि के शिक्षा संस्थानों मे होने लगी. बाद में उन्होंने एक साल 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' के वाइस चांसलर का पदभार संभाला तथा उत्तर प्रदेश और बिहार के 'लोक लेवा आयोग' के अध्यक्ष रहे.

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अपनी विद्वता के कारण देश-विदेश में सम्मान पाने वाले अमरनाथ झा का बतौर साहित्यकार साहित्यों के प्रति जुनून था. उनकी लाइब्रेरी में बड़ी संख्या में पुस्तकें रखी रहती थी. जो उनके जीवन का अटूट हिस्सा थीं. इसके साथ ही उन्होंने अनेक अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में भारत का प्रतिनिधित्व भी किया.

उन्हें पटना विश्वविद्यालय ने डी.लिट् की उपाधि प्रदान की थी. शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए साल 1954 में 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया गया. 2 सितम्बर, 1955 को उनका देहांत हो गया.

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